छः शत्रुओं का नाश कैसे करें वेदों का सन्देश: shtruyo ka Nash kese kre vedon ka Sandesh


उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् ।

सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र ।। (अथर्व० ८.४.२२)


(उलूकयातुम्) उल्लू की चाल को (शुशुलूकयातुम्) भेड़िये की चाल को (श्वयातुम्) कुत्ते की चाल को (उत) और (कोकयातुम्) चिड़े की चाल को (सुपर्णयातुम्) गरुड़ की चाल को (उत) और (गृध्रयातुम्) गीध की चाल को (जहि) नष्ट कर। (इन्द्र) हे ऐश्वर्य-अभिलाषी आत्मन् (रक्षः) इस राक्षस को (दृषदा इव) मानों पत्थर से (प्र मृण) मसल दे।


    भगवान् वेद का उपदेश सब देशों, सब कालों और सब मनुष्यों के लिए एक समान है। यदि संस्कृत की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग करें तो कह सकते हैं यह उपदेश सार्वदेशिक, सार्वकालिक, सार्वत्रिक और सार्वभौम है। वास्तव में यही वेद का वेदत्व है। यह वेदोपदेश पक्षपातरहित और सर्वमंगलकारी है। किसी वर्गविशेष को सम्बोधित करते हुए यह उपदेश नहीं दिया गया। यदि पक्षपातपूर्ण और किसी सम्प्रदाय-विशेष के लिए ये उपदेश होते तो वेद का आसन इतना ऊँचा नहीं रह सकता था।


    वेद ने मनुष्यों को कई प्रकार के उपदेश दिए हैं। प्रायः वेद में मनुष्य को सन्मार्ग दिखाने के लिए सरल शब्दों में ही सीधा-सादा उपदेश दिया है। कहीं प्रकृति के उपकरणों द्वारा भी उपदेश दिये गये हैं और कहीं-कहीं पशुओं एवं पक्षियों के माध्यम से भी जीवन के रहस्यों को समझाने और दुष्प्रवृत्तियों से बचाने का आदेश दिया गया है।


    इस मन्त्र में छः पशु-पक्षियों की चालों को गिनाकर मनुष्य को प्रेरणा दी गई है कि तू इन चालों को छोड़। उल्लू, भेड़िये, कुत्ते, चिड़े, सुपर्ण और गीध की चालें अच्छी चालें नहीं हैं। ये चालें मनुष्य-जीवन के पतन का कारण है, इसलिए इनका छोड़ना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है। अब हम क्रमशः इन चालों का वर्णन करते हैं।


  सबसे पहले है उलूकयातुम् अर्थात् उल्लू की चाल। उल्लू एक ऐसा पक्षी है जिसे अन्धकार से बहुत प्रेम होता है। उसे उजाले से प्रेम नहीं होता। वह रात्रि के गहन अन्धकार में निर्द्वन्द्व विचरण करता है, परन्तु प्रभात होते ही न जाने किन खण्डहरों के अन्धकार में जा छिपता है। मनुष्य को उपदेश दिया गया है कि अँधेरे से प्रेम करना हितकर नहीं है। 'उल्लू की चाल' का अर्थ अविद्यान्धकार अथवा अज्ञानान्धकार से प्रेम भी हो सकता है। अविद्या एवं अज्ञान मनुष्य के घोरतम शत्रु हैं।


   भेड़िये की दुष्प्रवृत्ति है क्रोध। भेड़िये की दूषित मनोवृत्ति यह होती है कि वह निर्बल को तो दबाता है परन्तु सबल के आगे झुक जाता है। यह मनोवृत्ति कायरता और भीरुता की सूचक है, वीरता और शक्तिमत्ता की नहीं। वीर और पराक्रमी व्यक्ति की मनोवृत्ति होती है शक्तिशाली अत्याचारी का विरोध और निर्बल तथा निराश्रय व्यक्ति की सहायता करना। इसका विपरीत भाव भेड़िये की भावना का परिचय देता है। यह भाव जिस व्यक्ति में पनपता है उसका अधःपतन निश्चित है। भेड़िया क्रूर होता है, मनुष्य को क्रूरता से बचना चाहिए।


    मन्त्र का अगला पद है जहि श्वयातुम् अर्थात् कुत्ते की चाल को छोड़ दो। कुत्ते में चाटुकारिता की प्रवृत्ति अत्यधिक मात्रा में होती है। चाटुकारिता का जन्म लोभ से होता है। कुत्ते की एक और प्रवृत्ति स्वजातिद्रोह हुआ करती है। यह जातिविद्रोह द्वेष का परिणाम होता है। स्वजातिद्रोह भी मनुष्य का एक अपयशकारी दुर्गुण होता है। इसके कारण मनुष्य का बहुत अपयश होता है। 


कुत्ते की वृत्ति से अभिप्राय 'संगठन का अभाव' भी लिया जाता है। यह प्रत्यक्ष एवं स्वतःसिद्ध बात है कि कुत्तों में संगठन का प्रायः अभाव रहता है। 'कुत्ते का कुत्ता वैरी' यह लोकोक्ति जगद्विख्यात है।


   मन्त्र का अगला पद है कोकयातुम् अर्थात् 'चिड़े की चाल'। चिड़ा बहुत कामी हुआ करता है। इस मन्त्रभाग में मर्यादित काम के उपभोग और मर्यादारहित काम के त्याग का उपदेश दिया गया है। 


गीता में योगिराज कृष्ण महाराज ने नरक के तीन नाशकारी दरवाजे बताये हैं। उनमें से एक, काम का द्वार है।इसे छोड़ने का आदेश दिया गया है।

काम एक ऐसी शक्ति है जिसके वशीभूत होकर मनुष्य पाप-कर्म करता है। मनुष्य का ज्ञान भी इसके कारण ढक जाता है। कामी मनुष्य विवेकहीन हो जाता है और बुद्धि-भ्रष्ट हो जाता है। 

राजर्षि चाणक्य ने कहा है―


नास्ति कामसमो व्याधिः । ―चा० नी० ५.११


अर्थात् _कामवासना के समान कोई रोग नहीं है।_

_मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी_ का जीवन इसी कामवासना की विजय का जीवन्त उदाहरण है। वे सीताजी के साथ चौदह वर्ष तक वनवास में रहे परन्तु उनके यहाँ कोई सन्तान नहीं हुई। काम पर कितनी अद्भुत विजय है! उनका जीवन _संयम और सदाचार_ की मूर्त्ति था। उनके जीवन में 'मातृवत् परदारेषु' अर्थात् _पराई स्त्रियों को माता के समान समझने की भावना_ पाई जाती थी।


   मन्त्र का अगला पद है सुपर्णयातुम् अर्थात् सुन्दर पंखोवाले गरुड़ की चाल। कहते हैं कि गरुड़ बहुत अभिमानी होता है। इस भाव से मनुष्य को उपदेश दिया गया है कि गरुड़ की चाल अर्थात् अभिमान को छोड़ दो। अभिमान भी व्यक्ति के नाश का बहुत बड़ा कारण होता है। 


    मन्त्र का अगला पद है गृध्रयातुम् अर्थात् गीध की चाल। गीध लालची होता है। गीध लोभ में फँसकर मृतक के ऊपर भी आ टूटता है। यह लोभ भी पाप का कारण है, जैसाकि कहा गया है―

लोभः पापस्य कारणम् ।

लोभ के वशीभूत होकर मनुष्य बड़े-बड़े पाप कर बैठता है। काले धन की कमाई और घूसखोरी इसी के परिणाम हैं। लोभ के कारण ही मनुष्य चौबीस घण्टे मारा-मारा फिरता है। उसे जीवन में सुख और शान्ति की अनुभूति नहीं होती, इसीलिए _भगवान् मनु_ ने अर्थ-शुद्धि पर बड़ा बल दिया है―


सर्वेषामेव शौचनामर्थशौचं परं स्मृतम् ।

योऽर्थेशुचिर्हि स शुचिः न मृद्वारि शुचिः शुचिः ।।

( मनु० ५.१०६ )


अर्थात् _सब पवित्रताओं से बढ़कर यदि कोई पवित्रता है तो धन की पवित्रता है। जो धन की शुद्धता है वही सच्ची शुद्धता है। मिट्टी और पानी के द्वारा जो शुद्धता और स्वच्छता प्राप्त की जाती है, वह शुद्धता और पवित्रता नहीं है।


इसका अभिप्राय यह नहीं कि हमें मिट्टी और जल से बाह्य शुद्धता नहीं करनी चाहिए। यह बाह्य शुद्धता भी आवश्यक है, परन्तु धन की पवित्रता इससे कहीं अधिक आवश्यक है। अर्थ की अशुद्धि के कारण गृहस्थ की सन्तान बिगड़ जाती है, परिवार में रोगों का निवास हो जाता है, मनुष्य का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अतः अर्थ-प्राप्ति के साधनों का पवित्र होना बहुत आवश्यक है।

अतः गीध की चाल लोभ को छोड़ देना चाहिए।




ओ३म् शं नो भग: शमु न: शंसो अस्तु शं न पुरन्धि: शमु सन्तु राय:। शं न: सत्यस्य सुयमस्य शंस: शं नो अर्यमा पुरूजातो अस्तु ।( ऋग्वेद ७|३५|२ )


 अर्थ :- हमारे लिए ऐश्वर्य सुखकारी हो और हमें हमारी प्रशंसा सुखदायक हो, धारण करने हारी हमारी बुद्धि शान्ति दायक हो और धनैश्वर्य हमें शान्ति देने वाले हो, अच्छे नियम से युक्त सत्य- कथन हमें सुखकारक हो, श्रेष्ठोंका मान करने हारा, बहुत प्रसिद्ध हमारा न्यायकारी भगवान् हमारे लिए कल्याणकारक हो ।


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