जहाँ धर्म है वहाँ विजय है।
महाभारत में अनेक स्थानों पर, यह बात कही गई है।इस पर विचार करने पर सर्वप्रथम धर्म का शाब्दिक अर्थ जानना पड़ेगा।”धृ” मे “मन्” प्रत्यय लगा कर धर्म शब्द बना है ,जिसमें “धृ”धातु का अर्थ धारण और पोषण करना है।
शाब्दिक दृष्टि से मतलब हुआ कि धर्म वह है, जो मनुष्य को मनुष्यता धारण कराए और आजीवन उस मनुष्यता को ही परिपुष्ट करे।इस प्रकार फलित हुआ कि, धर्म मानव जीवन का वह तत्व है, जिससे वह मनुष्य बनता है।
तब प्रश्न उठा कि वह क्या है जिससे मनुष्य की मनुष्यता सुरक्षित रहती है, तो उत्तर आया ,आचरण। (आचार:परमो धर्म: ) मनुष्य जीवन का आदर्श ही है मानवीय विचाराचार ।
गीतोक्त बात -स्वधर्मे निधनं
श्रेय: परधर्मो भयावह:” ने और भी स्पष्ट किया कि यदि हम मानवीय आचारादि त्याग कर अमानवीय व्यवहार ग्रहण करें तो हम राक्षस/पशु कहे जाने योग्य होंगे।इसीलिये अपने मानव जीवन मूल्यों-त्याग, करूणा, दया, क्षमा, धैर्य, सन्तोष आदि का पालन करते हुए उसके लिये मर मिटना, श्रेयस्कर है।नहीं तो संग्रह और असन्तोष आदि तो भयंकर दु:ख के ही कारण बनते हैं।
अतः सर्वस्व न्योछावर करके भी “धर्म”(मानवीय कर्तव्य कर्म पूर्वक सत्याचरण)मार्ग पर ही चलने में विजय प्राप्ति सुनिश्चित है।और अन्तिम बात तो ये है कि धर्म न केवल इस जन्म में वास्तविक विजयकारक है, अपितु अन्यज्जन्म में मानव का एकमात्र साथी भी है-देहश्चितायां परलोक मार्गे धर्मानुगो गच्छति जीव एक:।
वेद मंत्र :
ओ३म् अग्निरस्मि जन्मना जातवेदा घृतं मे चक्षुरमृतं मऽआसन्।अर्कस्त्रधातू रजसो विमानोऽजस्रो घर्मो हविरस्मि नाम॥ यजुर्वेद १८-६६॥
अर्थ :- अग्नि मुझ में जन्म से है, और मैं इस प्रारंभिक ज्ञान से निरंतर ज्ञान प्राप्त करता रहूं। मेरे चक्षु(घृत) प्रकाश ग्रहण करने वाली हो, मेरी वाणी मधुर हो। मेरा मन आराधना के लिए हो, मेरा मस्तिष्क ज्ञान के लिए हो, और शरीर उत्तम कर्मों के लिए हो। 'हे ईश्वर, मेरे ज्ञान में वृद्धि करो और मेरी वाणी को मधुर करो।
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