गृहस्थ आश्रम
हमारे समाज की पूरी व्यवस्था की रीढ़ गृहस्थ आश्रम है । इसकी उत्कृष्टता पर ही समाज में सुख शान्ति समृद्धि का आनंददायक वातावरण बनता है । अथर्ववेद - 3 /30 /2 ) के अनुसार - - आदर्श गृहस्थी वह है जिसमे बेटे अपने माता पिता के आज्ञाकारी हों , माता पिता बच्चों के हितकारी हों । पति और पत्नी पारस्परिक सम्बन्ध मधुर और सुखदायी हों । ऐसे ही परिवार सदा फलते फूलते हैं और सुखी रहते हैं ।
परिवार व्यक्ति और समाज को जोड़ने वाली कड़ी है , परिवार के सभ्य होने से देश तथा विश्व सुसंस्कृत हो सकते हैं । वैदिक परिवार में माता , पिता , सास , ससुर , पुत्र , पुत्रियां , देवर , ननद , भाभियाँ , आदि तथा सेवक भी शामिल रहते थे । पत्नी तो परिवार की साम्राज्ञी होती थी ।
चारों आश्रमों में ग्रहस्थ आश्रम ही सर्वश्रेष्ठ है , ग्रहस्थ में ही यज्ञ होते हैं , तप होते हैं , साधनाएँ होतीं हैं । ग्रहस्थ में परमार्थ , सेवा , प्रेम , सहायता , उदारता और दान आदि का प्रचलन रहता है ।
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जैसे नदी और बड़े बड़े नद तव तक घूमते रहते हैं जब तक उनको समुद्र नहीं मिल जाता , उसी प्रकार से गृहस्थ ही के आश्रय से सारे आश्रम स्थिर रहते हैं । इस गृहस्थ आश्रम के बिना किसी अन्य आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता है । ब्रह्मचारी , वानप्रस्थ , और संन्यास इन तीनों आश्रमों को यही गृहस्थ आश्रम दान एवं अन्न देता है , इसलिए गृहस्थ आश्रम ज्येष्ठ आश्रम है ।
इसलिए जो मोक्ष की , संसार सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहस्थ आश्रम का धारण करे । जो गृहस्थ आश्रम दुर्बलेंद्रीय अर्थात भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने अयोग्य है , उसको आप अच्छे प्रकार से धारण करो क्योंकि जितना कुछ व्यवहार संसार में है उसका आधार गृहस्थ आश्रम ही है ।
अगर यह आश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति न होती और फिर बृह्मचारी , वानप्रस्थी , और सन्यासी कहाँ से बनते । जो कोई गृहस्थ आश्रम की निंदा करता है वह निंदनीय है और जो प्रशंसा करता है वह प्रशंसनीय है । गृहस्थ आश्रम में सच्चा सुख तभी होता है जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न , विद्वान , पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों ।
श्री किशोर शास्त्री जी
संपर्क सूत्र: 91 98852 17572
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