सत्संग की महिमा क्या है

स्वस्ति पंथा मनुचरेम सूर्या चन्द्रमसाविव ।

पुनर्ददता अघ्नता जानता संगमेमहि ।। ऋ(5/51/15)

सूर्य और चंद्रमा के समान हम सब स्वयं उत्तम कल्याणकारी मार्ग का अनुसरण करें, और तत्पश्चात दानी अहिंसक प्राणी मात्र का उपकार करने वाले जानी विद्वान पुरुषों की संगति करें उनके बताए हुए मार्ग पर चलें।

परमपिता परमात्मा ने कितना सुंदर उपदेश दिया है कि हम नित्य प्रति नियम पूर्वक कल्याण मार्ग पर चलें सत्य पथ से कभी विचलित ना हो और इसके लिए हमदानी उदार परोपकारी विद्वान पुरुषों का सत्संग करें।

कल्याण मार्ग पर चलने के लिए सूर्य और चंद्रमा की उपमा दी गई है, इससे दो शिक्षाएं मिलती है,प्रथम यह कि हम सूर्य और चंद्रमा की भांति नियमित रूप से सन मार्ग पर चलते रहें, कभी भी इस नियम को ना तोड़ें। दूसरा यह है कि जिस प्रकार सूर्य और चंद्रमा दिन-रात जनता को प्राणी समूह को प्रकाश का मार्ग दिखाते हैं, अंधकार को दूर भगाते हैं, ठीक इसी प्रकार हम भी अन्य लोगों का पथ प्रदर्शन करें, अजान अंधकार को जान सूर्य बनकर नष्ट करें ।

दूरे  पुर्णेन वस्ति दूर उन्हें सीरते । 

महद्यक्षं भुवनस्य मध्यमे तस्मै बलिं राष्ट्रभृत़ो भरंति ।

पूर्ण के, उत्तम के साथ रहने से सामान्य जनों से दूर रहता है, और न्यून के हिल के साथ रहने से भी दूर गिर जाता है पतित हो जाता है। सब लोग लो कांतर में एक सब सेवड़ा पूजनीय देव परमात्मा है उसी के लिए राष्ट्रीय को धारण करने वाले श्रेष्ठ पुरुष बली अर्पण करते हैं ।

इसी मंत्र में उत्तम तथा अधम पुरुषों के संघ का वर्णन करते हुए बतलाया है कि जो श्रेष्ठ पुरुषों का सत्संग करता है, उसका सम्मान होने के कारण वह अन्य साधारण लोगों से दूर हो जाता है , ऊंचा उठ जाता है, तथा नीच व्यक्ति का सहवास करने से भी दूर गिर जाता है- पतित हो जाता है ।

यद्यपि दूर तो दोनों ही होते हैं किंतु उत्तम का संग करने वाला आदरणीय और अधर्म का साथी निंदनीय होता है ।इसलिए जो उत्तम पुरुष हैं वह सब महान और पूजनीय देव परमात्मा की संगति करते हैं , उसी की स्तुति प्रार्थना उपासना करते हैं ।

"ईश्वर आजा देता है कि हे मनुष्य तुम लोगों को विद्या के सिद्ध करने वाले कार्यों के नियमों में विघ्न कारी दुष्ट जीवो को सदा दूर करना  चाहिए और सज्जनों के समागम से विद्या की वृद्धि नित्य करनी चाहिए, जिस प्रकार अनेक उद्योगों से श्रेष्ठों की हानि दुष्टों की वृद्धि ना हो,सो नियम करना चाहिए और सदा श्रेष्ठ सज्जनों का सत्कार और दुष्टों को दंड देने के लिए उनका बंधन करना चाहिए। ईश्वर की आज्ञा का पालन तथा ईश्वर की उपासना करनी चाहिए।    (यजुर्वेद 1/26)

सत्संग की महिमा क्या है

हमारे शास्त्र सत्संग की महिमा से भरे पड़े हैं, सभी ने सत्संग की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। वास्तव में सत्संग है ही ऐसा जिसकी प्रशंसा करते करते रुकने को जी नहीं चाहता, जी हुआ नहीं थकती और लेखनी भी लिखने से नहीं रुकती। किसी कवि ने क्या ही सुंदर कहा है :-

चंदनं शीतलं लोके चंदनादपि चंद्रमा: ।

चंद्र चंदनयोर्मध्ये शीतला साधु संगति ।।

संसार में चंदन को शीतल माना जाता है, चंद्रमा की सौम्या किरणों तो उससे भी अधिक शीतलतर हैं , किंतु चंदन और चंद्रमा से भी अधिक शीतलतम साधु संगति महात्माओं का संग है ।

सत्संग ही परम पवित्र तीर्थ है, सत्संग ही परम पद मोक्ष का साधन है, इसलिए सब दूर व्यसनों को छोड़कर सदा सत्संग करना चाहिए।

सत्संग द्वारा विवेक जान हो जाने पर मनुष्य सांसारिक पदार्थों में ना फंस कर निसंग हो जाता है, और संसार में ना फंसने से मोहन स्वयमेव दूर हो जाता है तथा मन की स्थिरता हो जाती है और जब मन ईश्वर भक्ति में स्थिर हो जाता है तब मनुष्य संसार सागर से तर जाता है।

जैसे मलाया चल चंदन के पर्वत पर निकट का इंधन भी चंदन बन जाता है उसमें भी चंदन जैसी सुगंध आने लगती है इसी भांति सज्जनों की संगति से दुर्जन भी सज्जन बन जाता है।

एक तुच्छ कीट भी फूल के संगत से बड़े-बड़े राजा महाराजाओं के सिर पर पहुंच जाता है, कांच शीशा भी स्वर्ण के संघ से सूर्य की भांति चमकने लगता है। मूर्ख भी पंडित के संसर्ग में रहने से अति सुंदर बन जाता है, निस्तेज भी तेजस्वी के संग रख से स्वयं तेज संपन्न हो जाता है, 

सूर्य के संपर्क से शीशे में भी जलाने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है और वह वस्त्र आदि को जला देता है। इसलिए नीति कारों ने कहा है - सतां हि संग: सकलं प्रसूते" अर्थात सज्जन पुरुषों की संगति से सब कुछ मिल जाता है ।


सत्संग की महिमा कहां तक वर्णन करें, इसकी महिमा अपार है, इसलिए हमें सत्संग करनी चाहिए एवं सत्संग कर अपने जीवन को कृतार्थ करनी चाहिए। 


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